Wednesday, December 19, 2012

कभी मैं चली कभी रुक गयी
कभी मैं हवा थी कभी बनके कली खिल गयी
मैं कहीं गुमशुदा थी की एक "फूलों की हसी मुझे मिल गयी"
वो हवा थी गुनगुनाती सी, मुझे देखा और मुझमे मिल गयी.
कभी मैं शुन्य तो सहारा है वो, कभी मैं नदी तो किनारा है वो
वो हसी है मेरी, साँसों की आस
मैं उसकी परछाई और वो मेरा विश्वास,
कुछ और भी मिला है उसका साथ पाने से मुझे
शायद कविता की ग़ज़ल भी मेरे संग है हर अफसाने में मेरे
कभी शिखर कभी शेखर कभी शिव का वरदान
हाँ यही है मेरी जिंदगी का "एक अनकहा अनसुना प्यारा सा मुकाम"

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